बाबा कांशीराम (Baba Kanshi Ram)

 

Baba Kanshi Ram

 बाबा कांशीराम





भारत मां जो आजाद कराणे तायीं
मावां दे पुत्र चढ़े फांसियां
हंसदे-हंसदे आजादी दे नारे लाई..

मैं कुण, कुण घराना मेरा, सारा हिन्दुस्तान ए मेरा
भारत मां है मेरी माता, ओ जंजीरां जकड़ी ए.
ओ अंग्रेजां पकड़ी ए, उस नू आजाद कराणा ए..

कांशीराम जिन्द जवाणी, जिन्दबाज नी लाणी
इक्को बार जमणा, देश बड़ा है कौम बड़ी है.
जिन्द अमानत उस देस दी


जब हिंदुस्तान में आजादी के लिए नारे लग रहे थे, दूर पहाड़ों में एक इंसान पहाड़ी भाषा और पहाड़ी लहजे में वो गांव-गांव घूमकर अपने लिखे लोकगीतों, कविताओं और कहानियों से हिमाचल के एक एक इंसान तक पहुंच कर उसे आजादी के आंदोलन से जोड़ रहा था | कांगड़ा जिले में देहरा तहसील के डाडासिबा गांव में जन्मे  बाबा कांशी राम ने पहली बार पहाड़ी भाषा को लिखा और गा-गाकर लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ा |


11 जुलाई 1882 को लखनू राम और रेवती देवी के घर पैदा हुए  बाबा कांशी राम की शादी 7 साल की उम्र में हो गई थी | उस वक्त उनकी पत्नी सरस्वती की उम्र महज 5 साल थी | वो 11 साल के हुए तो पिता की मौत हो गई | परिवार की पूरी जिम्मेदारी उनके सिर पर आ गई थी | काम की तलाश में वो लाहौर चले गए | मगर उस वक्त आजादी का आंदोलन तेज हो चुका था और  बाबा कांशी राम के दिल दिमाग में आजादी के नारे गूंजने लगे थे | आज़ादी की तलब ने यहां मिलवाया दूसरे स्वतंत्रता सेनानियों से इनमें लाला हरदयाल, भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह और मौलवी बरक़त अली शामिल थे |  बाबा कांशी रामकी मुलाकात यहां उस वक्त के मशहूर देश भक्ति गीत ‘पगड़ी संभाल जट्टा’ लिखने वाले सूफी अंबा प्रसाद और लाल चंद ‘फलक’ से भी हुई जिसके बाद कांशीराम का पूरा ध्यान आजादी की लड़ाई में लग गया |

 बाबा कांशी राम बहुत पहले ये बात जान गए थे कि संगीत सबको बांधता है | संगीत के जरिए अनपढ़ से अनपढ़ इंसान तक पहुंचा जा सकता है | इसके लिए उन्होंने लाहौर की धोबी घाट मंडी में रहते हुए गाना सीखा लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए गाना शुरू किया वो पहाड़ी भाषा में लिखते और गाते थे | वो कभी ढोलक तो कभी मंजीरा लेकर गांव-गांव जाते और अपने देशभक्ति के गाने और कविताएं गाते थे |

साल 1905 में कांगड़ा घाटी भूकंप से तबाह हो गई. 7.8 की तीव्रता वाले भूकंप से करीब 20 हजार लोगों की जान गई | उस वक्त लाला लाजपत राय की कांग्रेस कार्यकर्ताओं की एक टीम लाहौर से कांगड़ा पहुंची जिसमें बाबा कांशी राम भी शामिल थे |  बाबा कांशी राम ने गांव-गांव जाकर भूकंप से प्रभावित लोगों की मदद की | यहां से उनकी लाजपत राय से नजदीकियां बढ़ीं, वो आजादी की लड़ाई में और सक्रिय हो गए |

1919 में जब जालियांवाला बाग हत्याकांड हुआ, कांशीराम उस वक्त अमृतसर में थे | यहां ब्रिटिश राज के खिलाफ आवाज बुलंद करने  कांशीराम को 5 मई 1920 को लाला लाजपत राय के साथ दो साल के लिए धर्मशाला जेल में डाल दिया गया | इस दौरान उन्होंने कई कविताएं और कहानियां पहाड़ी भाषा में  लिखीं | सजा खत्म होते ही कांगड़ा में अपने गांव पहुंचे और उन्होंने घूम-घूम कर अपनी देशभक्ति की कविताओं से लोगों को जागरूक करना शुरू कर दिया | उन्हें सुनने हजारों लोग इकट्ठा हो जाया करते थे | उन्होंने अपने जीवन के 9 साल सलाखों के पीछे काटे | जेल के दौरान उन्होंने लिखना जारी रखा 1 उपन्यास, 508 कविताएं और 8 कहानियां लिखीं”|

बाबा कांशी राम अपनी मातृभाषा में लगातार लिखते रहे उनकी प्रसिद्ध कविता है ‘अंग्रेज सरकार दा टिघा पर ध्याड़ा’ (अंग्रेज सरकार का सूर्यास्त होने वाला है) इसके लिए अंग्रेज सरकार ने उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया था मगर राजद्रोह का मामला जब साबित नहीं हुआ तो रिहा कर दिया गया | अपनी क्रांतिकारी कविताओं के चलते उन्हें 1930 से 1942 के बीच 9 बार जेल जाना पड़ा |

दौलतपुर जो अब ऊना जिले में आता है, एक जनसभा चल रही थी | यहां उस वक्त सरोजनी नायडू भी आयी थीं, यहां कांशीराम की कविताएं और गीत सुनकर सरोजनी ने उन्हें बुलबुल-ए-पहाड़ कहकर बुलाया था. जेल के दिनों में लिखी हर रचना उस वक्त लोगों में जोश भरने वाली थी | ‘समाज नी रोया’, ‘निक्के निक्के माहणुआं जो दुख बड़ा भारा’, ‘उजड़ी कांगड़े देश जाना’ और ‘कांशी रा सनेहा’ जैसी कई कविताएं मानवीय संवेदनाओं और संदेशों से भरी थीं |

साल 1937 में जवाहर लाल नेहरू होशियारपुर में गद्दीवाला में एक सभा को संबोधित करने आए थे | यहां मंच से नेहरू ने बाबा कांशीराम को पहाड़ी गांधी कहकर संबोधित किया था |उसके बाद से कांशी राम को पहाड़ी गांधी के नाम से ही जाना गया |

 1931 में जब भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी की सजा की खबर बाबा कांशी राम तक पहुंची तो उन्होंने ये भी कसम खाई कि जब तक मुल्क आज़ाद नहीं हो जाता, तब तक वो काले कपड़े पहनेंगे | इसके लिए उन्हें ‘स्याहपोश जरनैल’ (काले कपड़ों वाला जनरल) भी कहा गया. कांशीराम ने अपनी ये कसम मरते दम तक नहीं तोड़ी. 15 अक्टूबर 1943 को अपनी आखिरी सांसें लेते हुए भी कांशीराम के बदन पर काले कपड़े थे कफ़न भी काले कपड़े का ही था |”


बाबा कांशी राम के स्वतंत्रता आंदोलन में योगदान के चलते 23 अप्रैल 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कांगड़ा के ज्वालामुखी में बाबा कांशी राम पर एक डाक टिकट जारी की थी| उस वक्त कांशी राम के नाम पर हिमाचल प्रदेश से आने वाले कवियों और लेखकों को अवॉर्ड देने की भी शुरुआत हुई थी |



पहाड़ी गांधी कांशी राम का पैतृक घर ( In 2017 )


IN English Coming Soon....................................

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